जब भगवान जी ने मेरे प्रणाम का जवाब दिया

बड़ों को प्रणाम करना भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग है। यह नत–मस्तक होकर अभिवादन या नमस्कार करने का एक तरीका है। बचपन से ही माता पिता और गुरूजन पहली शिक्षा के रूप में प्रणाम करना ही सिखाते हैं। प्रणाम का सीधा संबंध प्रणत शब्द से है, जिसका अर्थ होता है विनीत होना, नम्र होना और किसी के सामने सिर झुकाना। प्राचीन काल से प्रणाम की परंपरा रही है। जब कोई व्यक्ति अपने से बड़ों के पास जाता है, तो वह प्रणाम करता है। प्रणाम या अभिवादन नमस्कार, राम राम जी, राधे राधे, या किसी भी प्रकार से देश, राज्य, क्षेत्र, धर्म या अपनी पसंद से किया जाता है।

हमारे जो बड़े हैं वो तो इस मामले में बड़े ही जिद्दी हैं, क्या मजाल कोई उन्हें प्रणाम किये बिना उनके सामने से निकल जाये, ऐसी कोई जुर्रत करता भी है तो उसे सिखा कर या अहसास करा कर ही दम लेते हैं। जहां हमारा बचपन बीता वहां तो यह सम्भव ही नही था कि किसी बड़े को प्रणाम न किया जाय। यह नितांत अक्षम्य था। ऐसा न करने पर अब तो “बड़ा आदमी हो गया है”, “पता नहीं किस बात का घमंड हो गया है”, आदि जैसे ताने और कभी कभी गालियों की बौछार भी सुनने को मिल जाती।

मैंने ग्रेजुएशन आगरा के राधास्वामी एजूकेशनल इंस्टीट्यूट से किया। वहां छात्र और अध्यापक आपस में “राधास्वामी” कह कर अभिवादन करते हैं। छात्र साइकल से आते थे, रास्ते में कोई अध्यापक मिल जाएं तो साइकल से उतर कर राधास्वामी बोलना होता था। मुझे अभी भी याद है कुछ छात्र ऐसा न करने की धृष्टता करते थे। उन छात्रों को, आदरणीय दास जी, जो उस समय बड़े ही सौम्य प्रधानाचार्य थे, रोकते, साइकल से उतारते और कहते “बेटा राधास्वामी “! यह उनका अपना अंदाज़ था अभिवादन की शिक्षा देने का।

प्रातः काल टहलने जाते समय की एक अत्यंत प्रेरक घटना है। रास्ते में रोज एक अति वृद्ध महिला, वॉकर के सहारे धीरे धीरे टहलती हुई मिलती हैं। एक दिन उन्होंने इशारा करके मुझे बुलाया, और बोली, “बेटा राम राम”! मैं अवाक था। फिर भी दोनों हाथ जोड़ कर मैंने कहा “अम्मा राम राम”।

पता नही कब से उनके मन में यह बात रही होगी कि मैं उन्हें प्रणाम नही करता। आखिर मुझे अहसास करा कर ही उन्होंने दम लिया। तब से आज तक क्या मजाल कि वह मिलें और मैं “अम्मा राम राम” न बोलूं।

मेरे एक भतीजे को बचपन में सिखाया गया कि रास्ते में कोई मन्दिर पड़े तो भगवान की मूर्ति को प्रणाम करना है। तो उसकी ऐसी आदत हो गई कि कभी कही जाता तो मंदिरों के अलावा चौराहों पर लगी मूर्तियों को फिर वो चाहे भगवान की हों, गांधी जी की, भारतमाता की या महारानी लक्ष्मीबाई की, सभी को देख कर रुकता और बोलता “भगवान जी की जय हो”।

अभी कुछ दिनों पूर्व ऐसे ही जब मैं एक मंदिर के सामने से निकला, मैंने अपने दोनों हाथ जोड़े, उसी समय मन्दिर से एक बुजुर्ग पूजा कर के निकल रहे थे। उन्होंने समझा कि मैंने उन्हें प्रणाम किया है। तुरन्त आशीर्वाद दिया, “जीते रहो बेटा, खुश रहो”। मुझे ऐसा ही आभास हुआ जैसे भगवान ने ही आशीर्वाद दिया हो। कितनी सुखद अनुभूति हुई मुझे, इसका अंदाज़ा लगाना आसान नहीं। ऐसे आश्चर्यजनक और सुखद पल जीवन में कभी कभी ही आते हैं।

इस आलेख में वर्णित सारे प्रसंग सत्य हैं।

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Manoranjan Sharma
Manoranjan Sharma
May 13, 2019 7:55 pm

All the pieces by Shri SS Gupta are very well written and reveal his incisive insight into various aspects of human life and activity, an uncanny ability to discover detachment through attachment, the nuances of communication across diverse groups of population and focus on the big picture without losing sight of the critical elements of the narrative.
Very good work! Keep it up!

sarvagya shekar Gupta
sarvagya shekar Gupta
May 13, 2019 8:31 pm

Thank you very much Sir.
You have been my role model.
Regards

दक शर्मा
दक शर्मा
April 1, 2020 9:36 am

बहुत अच्छी और प्रेरक बातें आप ने बताई। मैंने भी REI दयालबाग से डिप्लोमा किया था 1968 में और राधास्वामी कह कर अभिवादन करना वहां की परंपरा है।

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