सप्ताहांत: चुनाव प्रचार में बदजुबानी कैसे रुके

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दिल्ली विधानसभा चुनावों के लिए कल मतदान पूरा हो चुका है, 11 फरवरी को परिणाम भी आ जाएंगे। परँतु हर चुनाव की भाँति इन चुनावों में भी आरोप-प्रत्यारोप और बदजुबानी पराकाष्ठा पर रही। जूते मारो, गोली मारो, हिंदुस्तान-पाकिस्तान, करंट लगाओ से ले कर प्रधानमंत्री को डंडा मारो तक बात पहुँच गई। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने चुनावी सभा में प्रधानमंत्री के लिए जिस भाषा, लहजे और शब्दों का प्रयोग किया वह अशोभनीय है व उसका विरोध किया जाना चाहिए। यह कह कर नहीं बचा जा सकता कि सत्ता पक्ष के लोगों ने भी ऐसी ही भाषा का प्रयोग किया। न ही बाद में यह कहा जा सकता कि चुनाव प्रचार में तो ऐसा चलता ही है। जब बड़े नेता ही ऐसी भाषा का प्रयोग करेंगे तो छोटे कार्यकर्ता तो एक कदम आगे बढ़ कर अशोभनीय हरकतें करेंगे। बड़े नेता जो बोलते हैं उसका असर तुरँत होता है। सकारात्मक बात करने से समर्थक शाँत होते हैं तो नकारात्मक बात करने से समर्थक भड़कते भी हैं, अराजकता उत्पन्न होती है, हिंसा फैलती है।

आश्चर्यजनक रूप से इस बार आप पार्टी के नेताओं ने अपनी रणनीति में परिवर्तन किया और उन्होंने बातचीत में, प्रचार में कटुता को शामिल नहीं होने दिया। सबसे ज्यादा कड़वी बातें भाजपा और कोंग्रेस के नेताओं के मुँह से ही निकलीं। जबकि राहुल गाँधी चुनावों के समय अपनी बोली से सेल्फ गोल कर जाते हैं। उनकी बातों पर उनकी पार्टी बडी मुश्किल से बचाव कर पाती है और चुनावों में नुकसान भी होता है। वह खुद भी अनुभवी नहीं हैं और ऐसा लगता है जैसे उनके सलाहकार या भाषण लिखने वाले अनुभवी नहीं हैं।

चुनाव आयोग ने दिल्ली चुनावों में बहुत सतर्कता बरती और बदजुबान बड़बोले नेताओं की नकेल कसी। कपिल मिश्रा, अनुराग ठाकुर और प्रवेश वर्मा जैसे बड़े नेताओं के खिलाफ आयोग ने कार्रवाई की परँतु उसका कोई असर नहीं दिखाई दिया।

दंगों और अराजक भीड़ को नियंत्रित करने के लिए पुलिस भी यही काम करती है। किसी एक को पकड़ कर पीटना शुरू कर देती है, बाकी लोग डर कर भाग जाते हैं। विद्यालयों में भी बच्चे शोर कर रहे हों तो किसी एक को मास्टर जी बेंच पर खड़ा कर देते हैं तो बाकी सारे शाँत हो जाते हैं। कम्पनियों में बॉस भी सबेरे किसी एक कर्मचारी की क्लास लगा देते हैं, तो सारे ऑफिस में कर्मचारी पूरे दिन डरे डरे से रहते हैं। आयोग भी कार्यवाही का डंडा चला कर और लोगों को चेतावनी का संदेश देता है।

पिछले चुनावों में भी हमने इस विषय पर चर्चा की थी कि प्रचार अभियान में एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप कैसे रुकें। इसका एक उपाय तो यह है कि चुनाव प्रचार का समय कम किया जाए।इस बारे में विचार करना ही होगा कि पूरी चुनाव प्रक्रिया को छोटा कैसे किया जाए। ओफिसों में कम्प्यूटर लगने के बाद सभी की यह अपेक्षा रही कि काम पहले के मुकाबले जल्दी हो और होता भी है। इसी प्रकार प्रचार में तकनीक व सोशल मीडिया के प्रयोग, मतदान में ई वी एम का शत प्रतिशत प्रयोग होने के उपरांत यह उम्मीद की जाती रही है कि प्रचार, मतदान और गणना की प्रक्रिया कम लंबी हो। हालांकि इसमें अन्य संसाधनों व सुरक्षा बलों का मूवमेंट भी प्रभाव डालता है।

जितने दिन चुनाव चलते हैं उतना ही ज्यादा आरोप प्रत्यारोप और वैमनस्यता बढ़ती जाती है। इसी लिये मतदान से 48 घण्टे पूर्व प्रचार बन्द करने की भी परंपरा भी है पर वह भी अब निरर्थक सी हो गई है। इन 48 घण्टों के दौरान नेता लोग जान बूझ कर रैलियां, साक्षात्कार, घोषणापत्र जारी करना आदि कार्यक्रम आयोजित कर लेते हैं जिनका टी वी चेनलों पर सीधा प्रसारण होता है। इन पर भी इन 48 घण्टों के दौरान रोक लगनी चाहिये, कुछ तो शांति रहेगी। 7 फरवरी को दिल्ली में चुनाव प्रचार पर रोक थी परँतु कई बड़े चैनल अरविंद केजरीवाल, मनोज तिवारी के साक्षात्कार धड़ल्ले से दिखा रहे थे, असम में प्रधानमंत्री की सभा हो रही थी, शाहीन बाग को लाइव दिखाया जा रहा था। यह सब अप्रत्यक्ष प्रचार ही है। जबकि उच्चतम न्यायालय ने संयम बरतते हुए, चुनावों की वजह से शाहीन बाग पर सुनवाई 7 फरवरी को नहीं की।

हमारे दो सुझाव हैं, एक तो चुनाव प्रक्रिया, प्रचार के समय को कम किया जाए। दूसरे, प्रचार पर रोक के 48 घण्टों के दौरान न्यूज चैनलों और सोशल मीडिया पर प्रचार पर भी सख्ती से रोक लगे। इस संबंध में नियमों में जरूरी बदलाव किए जाएं।

– सर्वज्ञ शेखर

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