सप्ताहान्त – एक राष्ट्र एक चुनाव: संभावना औऱ चुनौतियां

एक राष्ट्र एक चुनाव अर्थात लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने की बहस सत्ताधारी हलकों ने पांच वर्ष पूर्व पिछले लोकसभा चुनावों के समय ही शुरू कर दी थी, परंतु हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विपक्षी नेताओं के साथ इस विषय पर बैठक कर के इस विषय को ताज़ा कर दिया है और मजबूत गति भी प्रदान की है। यद्यपि बैठक में कोई सहमति नहीं बनी और कोंग्रेस, शिवसेना सहित प्रमुख दलों ने बैठक का बहिष्कार किया, परंतु ऐसा लग रहा है कि केंद्र सरकार इस दिशा में गम्भीर है।

इस दिशा में धीरे धीरे प्रयोग भी किये गए हैं। 5 राज्यों मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिज़ोरम विधानसभाओं के चुनाव दिसंबर 2018 में एक साथ कराए गए। अभी मई 2019 में सम्पन्न हुए लोकसभा चुनावों के साथ भी चार राज्यों आंध्र, अरुणाचल, सिक्किम व ओडिसा विधानसभा के भी चुनाव हुए।

इस वर्ष 5 राज्यों जम्मू कश्मीर, महाराष्ट्र, हरयाणा,झारखंड और दिल्ली के चुनाव भी होने हैं और हो सकता है, ये चुनाव भी एक साथ ही हों।

भाजपा के नेताओं को लगता है और विपक्ष के एक वर्ग का मानना ही कि मोदी लहर का लाभ उठा कर राज्यों में अपनी सरकारें बना ली जाएं। खर्चा कम होना या बार बार आचार संहिता लगने से विकास कार्यो में बाधा होने की बात कहना तो एक बहाना है। ये बात तो संविधान निर्माताओं ने भी सोची होगी। पर कोई तो ऐसी विवशता होगी कि संविधान में ऐसी व्यवस्था पहले नहीं हो पाई।

हमारे देश का संघटनात्मक ढांचा औऱ विविधता विचारों में मत भिन्नता को मान्यता देता है जो कि लोकतंत्र का मजबूत मानक है। पार्षद और मेयर के चुनाव एक साथ होते हैं परंतु अक्सर हो जाता है कि जनता एक ही क्षेत्र में पार्षद किसी को और मेयर दूसरे दल के प्रत्याशी को चुनती है।

पिछले लोकसभा चुनावों के तुरंत बाद दिल्ली विधान सभा में भाजपा का क्या हाल हुआ सभी जानते हैं । इसलिये यह जरूरी नहीं कि एक साथ चुनाव होने पर् जनता लोकसभा और विधानसभा में एक ही दल को जिताये जैसा कि भाजपा सोचती है या विपक्ष को आशंका है। विगत वर्ष दिसम्बर में 5 राज्यों में चुनाव हुए परंतु 3 में कोंग्रेस जीती, 2 में अन्य दल। इस साल मई में लोकसभा के साथ जिन चार राज्यों के चुनाव हुए उनमें भी परिणाम एक से नहीं रहे। जिन तीन राज्यों मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ में 6 महीने पूर्व कोंग्रेस की लहर थी, वह मई 2019 में भाजपा लहर में परिवर्तित हो गई।

यदि यह मान लिया जाय कि एक साथ चुनाव का नियम बन गया और चुनाव होने पर एक साथ लोकसभा और विधान सभाओं का गठन हो गया। अब यदि अचानक किसी विधानसभा में अचानक सत्ताधारी दल बहुमत खो देता है और कोई दूसरा दल सरकार बनाने की स्थिति में नहीं है, तब क्या होगा। अभी तो दुबारा चुनाव करा के नई विधानसभा बन जाती है। परंतु एक साथ चुनाव की स्थिति में क्या उस विधान सभा को स्थगित रखा जाएगा, लम्बी अवधि तक राज्यपाल का शासन रहेगा। ऐसे संवैधानिक संकट का उपाय खोजना होगा जो आसान नहीं है।

इसी प्रकार यदि लोकसभा 5 वर्ष पूर्व ही किसी कारण से भंग हो जाती है तो मध्यावधि चुनाव कैसे होंगे,या राष्ट्रपति शासन लगाया जाएगा।

एक कथन यह भी है कि केंद्र और राज्यों के सम्बंध मालिक और नौकर के जैसे नहीं है कि सारे राज्यो में एक ही पार्टी की सरकार हो तभी केंद्र का राज्यों पर् नियंत्रण रहता है। पिछले 72 वर्षों से संघीय व्यवस्था सुचारू चल रही है।

सारे चुनाव एक साथ होने पर चुनाव आयोग और सुरक्षा कर्मियों पर जो दवाब होगा यह भी विचारणीय प्रश्न है।

– सर्वज्ञ शेखर

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