सप्ताहांत: इस आग को फैलने से जल्दी रोको

आग आग होती है, फिर वो हवन की हो या मँदिर में जल रहे दीपक की, भूख की, वासना की, हिंसा की, प्रतिशोध की, जंगल की, जब अपनी सीमा लाँघ जाती है तो हाथ जलाती है, तन जलाती है, अत्याचार को बढ़ावा देती है और कभी कभी पूरे परिवार को जला कर राख कर देती है, समाज और देश को तबाह कर देती है।

आजकल यही आग हमारे देश के सम्मान, महिलाओं की अस्मिता, शांति और खुशहाली को ध्वस्त कर रही है। महिलाएँ कहीं शर्म के मारे आत्महत्या कर रहीं हैं तो कहीं आतताई उन्हें जला रहे हैं। हिंसक उपद्रवों में सरकारी संपत्ति स्वाहा हो रही है, भ्रम, भ्रांति और अफवाहों की चिंगारी अब अविश्वास की आग में बदल गई है।

इस आग पर यदि जल्दी ही नियंत्रण नहीं किया गया तो यह दावानल बन कर भारत की अखंडता को तार-तार कर सकती है। यह प्रश्न अब बेमानी हो गया है कि यह आग प्रायोजित है या स्वतः स्फूर्त, या विपक्षियों ने इसे प्रायोजित किया या झारखंड में इस दौरान हुए चुनाव को प्रभावित करने के लिए किसी और ने किया। यह मजाक भी चल रहा है कि झारखंड चुनाव समाप्त होते ही देश में शांति हो जाएगी।यह आरोप प्रत्यारोप चलते रहेंगे।

riots

कुछ लोगों का यह भी मानना है कि किसी एक जगह या एक प्रदेश में तो प्रायोजित हिंसा हो सकती है लेकिन पूरे देश में नहीं। जो लोग भड़काने से भड़क सकते हैं, वह समझाने से समझ भी सकते हैं। परंतु उन्हें समझाने का कोई खास प्रयास नहीं किया गया। सरकार और पुलिस प्रशासन के हाथ बहुत लंबे होते हैं पर इन लंबे हाथों का सदुपयोग नहीं किया गया, विशेषकर दिल्ली और उत्तर प्रदेश में। आरोप है कि हिंसा को होने दिया गया, लोगों को इकठ्ठा होने से नहीं रोका गया, जब भीड़ अनियंत्रित हो गई, तभी पुलिस हरकत में आई। उत्तरप्रदेश के एक के बाद दूसरे शहरों में हिंसा होती रही, कोई अग्रिम उपाय नहीं किये गए। कश्मीर से धारा 370 हटाने के उपरांत इस प्रकार के अग्रिम सतर्कता उपाय किये गए थे कि सभी जगह शांति रही थी, वैसे ही उपाय इस बार नहीं किए गए। हालांकि उत्तरप्रदेश सरकार अब सक्रिय है, दंगाइयों की पहचान करके उनके फ़ोटो जारी किए गए हैं, धरपकड़ की गई है, कुछ शहरों में हिंसा के पीछे विदेशी तत्वों का हाथ होने की बात भी पुलिस अधिकारियों ने कही है। कुछ हलकों में पाकिस्तानी गुप्तचर संस्था आई एस आई का हाथ होने की आशंका भी जताई गई है। यदि ऐसा है तो यह बहुत ही गम्भीर व चिंता की बात है। पहले भी ऐसा हुआ है कि शांतिपूर्ण व उद्देश्यपरक आंदोलनों का विदेशियों ने नाजायज लाभ उठा कर देश को अस्थिर करने की कोशिश की।

अब आवश्यकता इस बात की है कि सरकार इसे नाक का विषय न बनाएं और सरकार आंदोलनकारियों व विपक्षी नेताओं से वार्ता करे व भ्रांतियों को दूर करे। आवश्यक हो तो कानून में कुछ बदलाव भी किए जा सकते हैं। इस कुतर्क से काम नही चलने वाला कि संसद में दो दिन की बहस के बाद बिल पास हुआ है। संसद में तो बहुमत के आधार पर और विरोध-बहिष्कार के बावजूद बहुत सारे बिल पास हो जाते हैं। वह लोकतांत्रिक प्रक्रिया है, परंतु मतभेद या आशंकाएं फिर भी रहते हैं जिनका निराकरण बाद में भी होता है। अभी तक हुए अनेक संविधान संशोधन इस बात का प्रमाण हैं।

हम एक बार फिर आंदोलनकारियों से अपील करते हैं कि हिंसा का रास्ता न अपनाएं, क्योंकि हिंसा होते ही आंदोलन उपद्रव में तब्दील हो जाता है और आंदोलन अपनी दिशा से भटक जाता है। अराजक तत्वों की पहचान करें व उनसे दूर रहें। सरकार को भी बातचीत का रास्ता अपनाना चाहिए। इतिहास साक्षी है कि वार्ता की मेज ने बड़े बड़े गूढ़ और दुरूह विषयों को सुलझाया है।

सर्वज्ञ शेखर

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