सोमवती अमावस्या आज : जिसके लिये ऋषि मुनि तरसते थे

सोमवती मावस, वट सावित्री व्रत,
शनि जयन्ती भी है आज,
तीन जून को तीन पर्व
मना रहा है सकल समाज।
ऋषि मुनि तरस जाते थे
प्राचीन काल में जिनको,
उनके तप से मिल रहे
पुण्य योग अब हम को।।

हिन्दू पंचांग के अनुसार माह की 30 वीं और कृष्ण पक्ष की अंतिम तिथि को अमावस्या होती है। कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा को कृष्ण पक्ष प्रारम्भ होता है तथा अमावास्या को समाप्त होता है। इस दिन का भारतीय जनजीवन में अत्यधिक महत्व है। हर माह की अमावस्या को कोई न कोई पर्व अवश्य मनाया जाता है। जैसे शनिवार को अमावस्या हो तो शनिश्चरी,माघ माह की अमावस्या को मौनी, सोमवार को पड़ने वाली अमावस्या को सोमवती अमावस्या कहते हैं। अमावस्या की तिथि का हिन्दू धर्म में बड़ा ही महत्व बताया गया है। जिस तिथि में चन्द्रमा और सूर्य साथ रहते हैं, वही ‘अमावस्या’ तिथि है। अमावस्या पर सूर्य और चन्द्रमा का अन्तर शून्य हो जाता है।शास्त्रों में में अमावस्या तिथि का स्वामी पितृदेव को माना जाता है। इसलिए इस दिन पितरों की तृप्ति के लिए तर्पण, दान-पुण्य का महत्व है। जब अमावस्या के दिन सोम, मंगलवार और गुरुवार के साथ जब अनुराधा, विशाखा और स्वाति नक्षत्र का योग बनता है, तो यह बहुत पवित्र योग माना गया है। इसी तरह शनिवार, और चतुर्दशी का योग भी विशेष फल देने वाला माना जाता है। ऐसे योग होने पर अमावस्या के दिन तीर्थस्नान, जप, तप और व्रत के पुण्य से ऋण या कर्ज और पापों से मिली पीड़ाओं से छुटकारा मिलता है। इसलिए यह संयम, साधना और तप के लिए श्रेष्ठ दिन माना जाता है।उत्तर भारत में अभी भी हर अमावस्या के दिन पितरों के नाम पर किसी ब्राह्मण को घर बुला कर भोजन कराया जाता है या मन्दिर में भोजन भिजवा दिया जाता है।

लेकिन सोमवती अमावस्या को अन्य अमावस्याओं से अधिक पुण्य कारक मानने के पीछे भी शास्त्रीय और पौराणिक कारण हैं। सोमवार को भगवान शिव और चन्द्रमा का दिन कहा गया है। सोम यानि अमृत। अमावस्या और पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा का सोमांश यानि अमृतांश सीधे-सीधे पृथ्वी पर पड़ता है। शास्त्रों के अनुसार सोमवती अमावस्या पर चन्द्रमा का अमृतांश पृथ्वी पर सबसे अधिक मात्रा में पड़ता है।

प्राचीन काल में ऋषि मुनि बड़ी कठोर तपस्या करते थे तब सोमवती अमावस्या का योग सैंकड़ो सालों में एकाध बार आता था। परन्तु कलियुग में कुछ ऐसा चमत्कार है कि बिना किसी प्रयास के भक्तों को सोमवती अमावस्या का पुण्य लाभ वर्ष में दो तीन बार प्राप्त हो जाता है।

एक किवदंती यह भी प्रचलित है कि महाभारत युद्ध में मारे गए दिवंगत आत्माओं की शांति के लिए पांडवों ने फल्गु तीर्थ पर पिंडदान के लिए वर्षों तक इंतजार किया था, लेकिन सोमवती अमावस्या न आने के कारण चाहकर भी पांडव फल्गु तीर्थ पर अपने पिंडदान नहीं कर पाए थे। यहां पिंडदान न कर पाने के कारण युधिष्ठिर ने सोमवती अमावस्या को श्राप दिया था कि वह कलयुग में जल्दी-जल्दी आएगी। महाभारत के वन पर्व के अनुसार युद्ध की समाप्ति पर युधिष्ठिर को इस बात की चिंता हुई कि इस युद्ध में दिवंगत आत्माओं को किस प्रकार शांति व मुक्ति मिले। श्रीकृष्ण के कहने पर युधिष्ठिर शर शय्या पर लेटे हुए भीष्म पितामह के पास गए और बंधुओं सहित अपनी व्यथा कही। पितामह ने कहा कि, ‘युद्ध में मारे गए मृत लोगों का पिंडदान फलकी वन के सरोवर पर सोमवती अमावस्या को करें क्योंकि किसी समय फलकी ऋषि ने तपस्या से उस भूमि को पवित्र किया था। इस तीर्थ में यदि ब्राह्मणों को दक्षिणा दी जाए या द्विज श्रेष्ठ को प्रणाम करके एक मुट्ठी तिल दें या तिलों से युक्त तिलांजलि दी जाए या फिर कहीं से एक दिन का चारा लाकर श्रद्धापूर्वक गौ को खिलाया जाए तो इन कृत्यों से भी पितर प्रसन्न होंगे, सोमवती अमावस्या का काफी इंतजार किया, लेकिन वर्षों के बाद सोमवती अमावस्या न आने से पांडव फल्गु तीर्थ पर पिंडदान नहीं कर सके।

कुरुक्षेत्र के सात वनों की श्रृंखला में एक वन है ‘फल्की वन’। इस वन में स्थित फल्गु तीर्थ आज भी विद्यमान है। यह कुरुक्षेत्र से लगभग 30 कि.मी. दूर मुख्य सड़क कुरुक्षेत्र-ढांड पुंडरी रोड से लगभग 3 कि.मी. फरल गांव में पूर्व दिशा की ओर स्थित है। फल्की वन के कारण ही इस ग्राम का नाम फरल पड़ा। ‘फल्गु’ ऋषि से संबंधित होने के कारण यह तीर्थ फल्गु तीर्थ के नाम से प्रसिद्ध है।

– सर्वज्ञ शेखर

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